भक्तराज अम्बरीष महाराज नाभग के
पुत्र थे। वे सप्तद्वीपवती पृथ्वी के एकमात्र सम्राट थे। सम्पूर्ण ऐश्वर्य के
अधीश्वर होते हुए भी संसारके भोग-पदार्थों में उनकी जरा भी आसक्ति न थी। उनका सम्पूर्ण
जीवन भगवान की सेवा में समर्पित था। जो अनन्यभाव से भगवान की शरणागति प्राप्त कर
लेता है, उसके योग-क्षेमका सम्पूर्ण
भार भगवान अपने ऊपर ले लेते हैं। इसीलिये महाराज अम्बरीष की सुरक्षा के लिये
भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र को नियुक्त किया था। सुदर्शन चक्र गुप्तरूप से भगवान
के आज्ञानुसार महाराज अम्बरीष के राजद्वार पर पहरा दिया करते थे।
एक समय महाराज अम्बरीष ने
अपनी रानी के साथ भगवान श्रीकृष्ण की प्रीति के लिये वर्ष भर की एकादशी व्रत का
अनुष्ठान किया। अन्तिम एकादशी के दूसरे दिन भगवान की सविधि पूजा की गयी।
ब्राह्मणों को भोजन कराया गया और उन्हें वस्त्राभूषणों से अलंकृत गौएँ दान में
दी गयीं। तदन्नतर राजा अम्बरीष पारण की तैयारी कर रहे थे कि अचानक महर्षि
दुर्वासा अपने शिष्यों के साथ पधारे। अतिथि प्रेमी महाराज ने उनका अतिथि-सत्कार
करने के बाद उनसे भोजन करने के लिए निवेदन किया। दुर्वासाजी ने उनके निवेदन को स्वीकार
किया और मध्याह्न संध्या के लिये यमुना तट पर चले गए। द्वादशी केवल एक घड़ीमात्र
शेष थी। द्वादश में पारण न होने पर महाराज को व्रत भड़्ग का दोष लगता, अत: उन्होंने
ब्राह्मणों की आज्ञा से भगवान का चरणोदक पान कर लिया और भोजन के लिए दुर्वासा की
प्रतीक्षा करने लगे। दुर्वासाजी जब अपने नित्यकर्म से निवृत्त होकर राजमहल लौटे,
तब उन्हें तपोबल से राजा के द्वारा भगवान के चरणामृत से पारण की
बात अपने-आप मालूम हो गयी। उन्होंने क्रोधित होकर महाराज अम्बरीष से कहा – ‘मूर्ख! तू भक्त नहीं ढोंगी है। तूने
मुझ अतिथि को निमन्त्रण देकर भोजन कराने से पहले ही भोजन कर लिया है। इसलिए मैं
कृत्या के द्वारा अभी तुझे नष्ट कर देता हूँ। ‘ ऐसा कहकर उन्होंने अपने मस्तक
से एक जटा उखाड़कर पृथ्वी पर पटका, जिससे कालाग्रि के समान एक कृत्या उत्पत्र हुई। वह भयानक कृत्या
तलवार लेकर अम्बरीष को मारने के लिए
दौड़ी। उसके अम्बरीष तक पहुँचने के पूर्व ही भगवान के सुदर्शन न उसे जलाकर भस्म
कर दिया। कृत्या को समाप्त करके सुदर्शन चक्र ने मारने के लिए दर्वासा का पीछा
किया।
दुर्वासा अपनी रक्षा के लिए तीनों
लोकों और चौदहों भुवनों में भटके, किंतु भगवान और भक्त के द्रोही को किसी ने आश्रय और अभय नहीं प्रदान किया। अन्त में दर्वासा भगवान
विष्णु के पास गये। भगवान ने उनसे कहा- ‘मैं तो भक्तों के अधीन हूँ। मैं भी आपकी
रक्षा करने में असमर्थ हूँ। आपकी रक्षा का अधिकार केवल व्याकुल अम्बरीष को ही है,
अत: आपको उन्हीं के शरण में जाना चाहिए।’ अन्तत: दुर्वासा व्याकुल
होकर अम्बरीष की शरण में गये और पहुँचते ही उनके चरण पकड़ लिये। अम्बरीष उनकी
प्रतीक्षा में तभी से खड़े थे, जबसे चक्र ने उनका पीछा किया
था। उन्होंने सुदर्शन चक्र की स्तुति की और दुर्वासा को क्षमादान दिलाया। यह है
भगवान के भक्ति की शक्ति और भक्त की करुणा। दुर्वासा भगवान के भक्ति की शक्ति को
प्रणाम करके अम्बरीष का गुणगान करते हुए तपस्या हेतु वनको चले गये।




1 Comments
वाह अद्भुत
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