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भगवान के कपिलावतार की कथा

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भगवान ब्रह्मा ने अपने पुत्र महर्षि कर्दम को सृष्टि की वृद्धि के लिए आदेश दिया। महर्षि कर्दम पिता की आज्ञा स्‍वीकार करके बिन्‍दुसर-तीर्थ के समीप जाकर कठोर तपस्‍या में लग गए। उस समय तप ही मनुष्‍य की समस्‍त इच्छाओं की पूर्ति का प्रधान था। महर्षि की तपस्‍या से प्रसन्‍न होकर भगवान नारायण प्रकट हुए। उन्‍होंने महर्षि से कहा- ‘महाराज मनु की कन्‍या देवहूति तुम्‍हारे अनुरूप योग्‍य पत्‍नी सिद्ध होगी और तुम्‍हारे उद्येश्‍य की पूर्ति में सहायक होगी। अत: जब महाराज मनु देवहूति को लेकर तुम्‍हारे आश्रम पर पधारें, तब तुम उन्‍हें देवहूति से  विवा‍ह करने की स्‍वीकृति दे देना । कालान्‍तर में मैं स्‍वयं तुम्‍हारे माध्‍यम से देवहूति के गर्भ से अवतार लूँगा और संसार को सांख्‍यशास्‍त्र एवं भक्ति का उपदेश करूँगा।

     एक दिन महाराज मनु महर्षि कर्दम के आश्रम पर पधारे और महर्षि का देवहूति के साथ विवाह सम्‍पन्‍न हो गया। विवाह के बाद भी महर्षि अपनी तपस्‍या में ही लगे रहे और आश्रम की व्‍यवस्‍था तथा महर्षि की सेवा देवहूति की नित्‍य की दिनचर्या हो गयी। राजकन्‍या से अब वे वल्‍कलधारिणी तपस्विनी बनकर रह गयीं। अन्‍नत: महर्षि उनकी पतिभक्ति और सेवा से प्रसन्‍न हुए और बोले- ‘कल्‍याणि ! तुमने मेरी सेवा में अपने-आप को सुखा डाला है। मैं तुम पर प्रसन्‍न हूँ। बताओ ! मैं तुम्‍हारी कौन सी कामना सिद्ध करूँ ?’

     

देवहूति को संतान की कामना थी। महर्षि कर्दम ने तपस्या और योग के प्रभाव से एक दिव्य विमान प्रकट किया, जिसमें सहस्‍त्रों दास-दासियां, दिव्‍य वस्‍त्राभूषण तथा लोकोत्‍तर ऐश्‍वर्य-भोग की दुर्लभ सामग्रियां उपलब्‍ध थीं। महर्षि देवहूति के साथ विमान में चढ़ गए। उन्‍हें विमान में गार्हस्‍थ्‍य सुखों का भोग करते हुए वर्षो बीत गए। देवहूति ने नौ पुत्रियों को जन्‍म दिया, जिनका विवाह महर्षि मरीचि, अत्रि, अंगिरा आदि के साथ सम्‍पन्‍न हुआ।

     महर्षि कर्दम ने सोचा- ‘विषयों में लगकर यह जीवन नष्‍ट हो गया।‘ उनमें पूर्ण वैराग्‍य का उदय हुआ। अब उन्‍होंने अकेले ही तपके लिए वन जाने का निश्‍चय किया। देवहूति ने अत्‍यन्‍त व्‍याकुल होकर उनसे दीन शब्‍दों में कहा- ‘देव ! मैं इन्द्रियों के विषय में मूढ़ बनी रही। मैं आपके प्रभाव से अनभिज्ञ रही, फिर भी आप-जैसे महापुरुष का संग कल्‍याणकारी होना चाहिये। अत: मेरे उद्धार का मार्ग बताने की कृपा करें।




                                            

महर्षि बोले- ‘भद्रे ! व्‍याकुल मत हो। तुम्‍हारे गर्भ से परम पुरुष प्रकट होने वाला हैं। वे तुम्‍हें तत्‍वज्ञान का उपदेश करेंगे। मैं उनका दर्शन करके ही यहाँ से जाऊँगा। समय पर भगवान कपिल ने देवहूति के गर्भ से अवतार लिया। महर्षि उनका दर्शन करके और आदेश लेकर तपके लिये वन में चले गए। भगवान कपिल ने माता को तत्‍वज्ञान का उपदेश देते हुए कहा- ‘यह मन ही मनुष्‍य के बन्‍धन और मोक्ष का कारण है। विषयों में आसक्‍त होने पर वह बन्‍धन का हेतु होता है, किंतु परमात्‍मा में अनुरक्‍त होने पर वही मोक्ष का कारण बन जाता है। अत: मनुष्‍य को चाहिये कि वह सब ओर से मन को खींचकर भगवान के स्‍वरूप में लगाये। इस प्रकार माता को भक्ति और सांख्‍यशास्‍त्र का उपदेश देकर भगवान कपिल समुद्रतट पर गए और समुद्र ने उनको अपने अंदर स्‍थान दिया। देवहूति भी उनके उपदेश के अनुरूप भगवान में अपना मन लगाकर मुक्‍त हो  गयीं।


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